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क्या आप जानते हैं यमुना नदी की उत्त्पति कहां से हुई है, इससे जुड़े कुछ रोचक तथ्य

भारत की सबसे पवित्र नदियों में से एक यमुना नदी की उत्त्पत्ति और इससे जुड़ी कुछ रोचक बातों को जानने के लिए पढ़ें ये लेख।

यमुना नदी को जमुना नदी के नाम से भी जाना जाता है। भारत की राजधानी दिल्ली को चारों तरफ से घेरे हुए यमुना नदी न सिर्फ दिल्ली बल्कि पूरे देश के कोने-कोने में रची बसी है। यमुना नदी उत्तर भारत की प्रमुख नदी है यह मुख्यतः उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश राज्यों में बहती है। गंगा नदी के साथ यह भी देश की सबसे पवित्र नदियों में से एक है।

यमुना का उद्गम स्थान पश्चिमी उत्तराखंड में यमुनोत्री के पास महान हिमालय में बंदर पंच मासिफ की ढलानों से होता है। यह हिमालय की तलहटी से होते हुए दक्षिण दिशा में तेजी से बहती है और उत्तराखंड से निकलकर, भारत-गंगा के मैदान में, उत्तर प्रदेश और हरियाणा राज्य के बीच की सीमा के साथ पश्चिम में बहती है। पूर्वी और पश्चिमी नहरों को भी यमुना के जल से सींचा जाता है। आइए जानें यमुना के उद्गम के साथ इससे जुड़ी कुछ रोचक बातों के बारे में।

कहां से होता है यमुना नदी का उद्गम

यमुना नदी का उद्गम स्थान यमुनोत्री से है। ऐसा कहा जाता है कि यमुनोत्री दर्शन के बिना तीर्थयात्रियों की यात्रा अधूरी होती है। समानांतर बहते हुए यह नदी प्रयाग में गंगा में मिल जाती है। हिमालय पर इसके उद्गम के पास एक चोटी का नाम बन्दरपुच्छ है। गढ़वाल क्षेत्र की यह सबसे बड़ी चो़टी है यह करीब 6500 मीटर ऊंची है। अपने उद्गम स्थान से आगे बढ़कर कई मील तक विशाल हिमगारों में यह नदी बहती हुई पहाड़ी ढलानों से अत्यन्त तीव्रतापूर्वक उतरती हुई इसकी धारा दूर तक बहती चली जाती है।

सबसे पवित्र नदियों में से एक है यमुना
यमुना नदी भारत की सबसे बड़ी सहायक नदी है, गंगा नदी बेसिन की दूसरी सबसे बड़ी सहायक नदी है। यमुना का उद्गम यमुनोत्री ग्लेशियर से 20955 फीट की ऊंचाई पर होता है, जो बंदरपंच में स्थित है, जो उत्तराखंड में निचले हिमालय की चोटी है। प्रयागराज में त्रिवेणी संगम में यमुना नदी गंगा नदी में विलीन हो जाती है, जो हिंदुओं के लिए एक पवित्र स्थान है। यमुना नदी का नाम भारतीय भाषा संस्कृत से लिया गया है, जिसका अर्थ है जुड़वां। हिंदू धार्मिक ग्रंथों ऋग्वेद और अथर्ववेद में यमुना नदी का उल्लेख मिलता है। यमुना नदी का संबंध हिंदू भगवान कृष्ण के जन्म से भी है।इसलिए यह भारत की सबसे पवित्र नदियों (भारत की 7 सबसे पवित्र नदियां ) में से एक मानी जाती है।

दिल्ली से लेकर आगरा तक बहती है यमुना

यमुना नदी दिल्ली से गुजरती है और यह आगरा शहर की खूबसूरती को भी बढ़ाती है। दिल्ली के दक्षिण में और अब पूरी तरह उत्तर प्रदेश के भीतर, यह मथुरा के पास दक्षिण-पूर्व की ओर मुड़ती है और आगरा, फिरोजाबाद और इटावा से होकर गुजरती है। इटावा के नीचे इसे कई दक्षिणी सहायक नदियां मिलती हैं, जिनमें से सबसे बड़ी चंबल, सिंध, बेतवा और केन नदियां हैं। इलाहाबाद के पास, लगभग 855 मील के एक कोर्स के बाद, यमुना नदी गंगा में मिलती है। दो नदियों का संगम हिंदुओं के लिए एक विशेष रूप से पवित्र स्थान माना जाता है और वार्षिक उत्सवों के साथ-साथ यहां कुंभ मेला भी लगता है, जो हर 12 साल में आयोजित किया जाता है और इसमें लाखों भक्त शामिल होते हैं।

यमुना नदी का श्री कृष्ण से है गहरा नाता
धार्मिक मान्यताओं की बात की जाए तो यमुना नदी से होकर ही कृष्ण के पिता वासुदेव ने नवजात श्री कृष्ण को एक टोकरी में रखकर मथुरा से गोकुल तक उनके पालक पिता नंदराज तक पहुंचाया था। एक धार्मिक मान्यता के अनुसार कृष्ण के बचपन के दिनों में यमुना नदी जहरीली थी, क्योंकि यमुना नदी के नीचे कालिया नाम का एक पांच सिर वाला सांप रहता था, जो नहीं चाहता था कि मनुष्य यमुना के पानी का सेवन करें। श्रीकृष्ण ने बचपन में ही जहरीली नदियों में छलांग लगा दी थी और कालिया सर्प से युद्ध कर युद्ध जीत लिया था। कृष्ण ने बाद में यमुना नदी के जहर को दूर करके इसके पानी को साफ़ और पीने योग्य बनाया था।

यमुना नदी में गर्म पानी का कुंड
यमुना नदी में यमुनोत्री में एक गर्म पानी का कुंड भी है। इस कुंड को सूर्य कुंड के नाम से भी जाना जाता है। माना जाता है कि यह कुंड सूर्य देवता सूर्य की संतान को समर्पित है। सूर्य कुंड में पानी इतना गर्म होता है कि लोग इसमें चाय और चावल भी आसानी से बना सकते हैं और इस पानी का उपयोग करके आलू उबालते हैं। सूर्य कुंड के पानी का तापमान लगभग 88 डिग्री सेल्सियस रहने का अनुमान है। सूर्य कुंड में तैयार चावल और आलू यमुनोत्री मंदिर में देवता को चढ़ाए जाते हैं।

क्यों प्रदूषित होती है यमुना नदी

यमुना नदी उत्तराखंड के एक ग्लेशियर से निकलती है। उत्तराखंड से यह पवित्र नदी हरियाणा, दिल्ली और उत्तर प्रदेश में बहती है। आंकड़े बताते हैं कि यह नदी अपने जन्म स्थान से शुद्ध होकर निकलती है और आगे आते-आते प्रदूषित हो जाती है क्योंकि यह दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र में पहुंचती है जो इसके प्रदूष्ण का मुख्य कारण बनते हैं। हालांकि साल 1984 में, भारत सरकार ने यमुना को साफ करने का मिशन भी शुरू किया था लेकिन उसमें सफल नहीं हो सके। दिल्ली-एनसीआर में औद्योगीकरण और औद्योगिक कचरे को नदी में फेंकना प्रदूषण का प्रमुख कारण रहा है।

इस प्रकार विभिन्न तथ्यों को खुद में समेटे हुए यमुना नदी भारत की कई अन्य पवित्र नदियों में से एक है जो अपने उद्गम स्थान के साथ जहां से भी गुजरती है उन स्थानों को भी पवित्र बनाती है।

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Bad Habits Of Morning: सुबह उठते ही न करें ये काम शरीर को हो सकता है नुकसान

Bad Habits Of Morning: आज हम आपको ये बताएंगें कि सुबह उठते ही कौन से काम आपके शरीर लिए नुकसानदायक हो सकते हैं।

नई दिल्ली। Bad Habits Of Morning: यदि आप सुबह उठते ही अपनी सेहत की केयर करने लगते हैं तो ये आपके सेहत के लिए तो अच्छा होता है। साथ ही साथ आप पूरे दिन फ्रेश फील करते हैं। वहीं यदि आप सुबह उठते ही फ़ोन या लैपटॉप चलाने लग जाना, देर तक सोना,एक्सरसाइज न करना या बेड पर ही लेटे रहना। ये कुछ ऐसी चीजें हैं जो सेहत के लिए बिलकुल भी अच्छी नहीं है। आप पूरे दिन खुद को थका हुआ और नींद में महसूस करेंगें। अपने काम पर भी अच्छे से फोकस नहीं कर पाएंगे। वहीं ये लाइफस्टाइल शरीर में अनेकों बीमारियां भी लेकर आ सकती हैं। इसलिए ऐसी लाइफस्टाइल को अवॉयड करने की जरूरत होती है। जो हमारी बॉडी के लिए ही नुकसानदायक हो।
तो चलिए आज हम आपको बताएंगें कि सुबह उठते ही कौन सी गलतियां नहीं करनी चाहिए। यदि आप भी करते हैं तो सतर्क हो जाइए।

सुबह उठते ही चाय या कॉफी का सेवन करना
बहुत से लोग ऐसे होते हैं जो सुबह उठते ही तुरंत चाय या कॉफी पीते हैं। खाली पेट कैफीन का सेवन करना शरीर के लिए अच्छा नहीं होता है। इनके नुकसान की बात करें तो आयुर्वेद और मेडिकल साइंस दोनों का यही मानना है कि खाली पेट चाय,कॉफ़ी या कैफीन रिलेटेड ड्रिंक्स का सेवन पेट के लिए समस्याओं को बढ़ाने का काम करते हैं। पेट में गैस बनना,पेट में दर्द होते रहना और एसिडिटी जैसी समस्याएं आ सकती हैं। जिससे बचने के लिए सुबह उठते ही चाय या कॉफी के सेवन से बचना चाहिए।

एक्सरसाइज न करना
बहुत से लोग सुबह उठते ही बेड में लेटे हुए रहते हैं और फ़ोन चलाते हैं। ऐसा करने से शरीर में बुरा प्रभाव भी पड़ता है और पूरे दिन नींद में रहते हैं। इसलिए यदि आप भी ऐसा करते हैं तो अपना रूटीन को बदलने की जरूरत है। कोशिश करें की सुबह ताज़ी हवा में एक्सरसाइज करें। ताकि आप बीमारियों से दूर रह सकें।

ब्रेकफास्ट को न खाना
सुबह का नाश्ता ही आपको पूरे दिन के लिए एनर्जी प्रोवाइड करता है। इसलिए सुबह के नाश्ते को स्किप नहीं करना चाहिए। ये बीमारियों से बचाता है और बॉडी को ऊर्जा प्रदान करता है। सुबह के नाश्ते में आप ओट्स,फ्रूट्स,दलिया आदि फायदेमंद चीजों का सेवन कर सकते हैं।

यह भी पढ़ें: भूलकर भी न करें ब्रेकफास्ट मिस सेहत पर पड़ सकता है असर

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Nature is an important and integral part of mankind

It is one of the greatest blessings for human life; however, nowadays humans fail to recognize it as one. Nature has been an inspiration for numerous poets, writers, artists and more of yesteryears.

This remarkable creation inspired them to write poems and stories in the glory of it. They truly valued nature which reflects in their works even today. Essentially, nature is everything we are surrounded by like the water we drink, the air we breathe, the sun we soak in, the birds we hear chirping, the moon we gaze at and more. Above all, it is rich and vibrant and consists of both living and non-living things. Therefore, people of the modern age should also learn something from people of yesteryear and start valuing nature before it gets too late.
Significance of Nature
Nature has been in existence long before humans and ever since it has taken care of mankind and nourished it forever. In other words, it offers us a protective layer which guards us against all kinds of damages and harms. Survival of mankind without nature is impossible and humans need to understand that.

If nature has the ability to protect us, it is also powerful enough to destroy the entire mankind. Every form of nature, for instance, the plants, animals, rivers, mountains, moon, and more holds equal significance for us. Absence of one element is enough to cause a catastrophe in the functioning of human life.
We fulfill our healthy lifestyle by eating and drinking healthy, which nature gives us. Similarly, it provides us with water and food that enables us to do so. Rainfall and sunshine, the two most important elements to survive are derived from nature itself.

Further, the air we breathe and the wood we use for various purposes are a gift of nature only. But, with technological advancements, people are not paying attention to nature. The need to conserve and balance the natural assets is rising day by day which requires immediate attention.

Conservation of Nature
In order to conserve nature, we must take drastic steps right away to prevent any further damage. The most important step is to prevent deforestation at all levels. Cutting down of trees has serious consequences in different spheres. It can cause soil erosion easily and also bring a decline in rainfall on a major level.
Polluting ocean water must be strictly prohibited by all industries straightaway as it causes a lot of water shortage. The excessive use of automobiles, AC’s and ovens emit a lot of Chlorofluorocarbons’ which depletes the ozone layer. This, in turn, causes global warming which causes thermal expansion and melting of glaciers. 

Therefore, we should avoid personal use of the vehicle when we can, switch to public transport and carpooling. We must invest in solar energy giving a chance for the natural resources to replenish.

In conclusion, nature has a powerful transformative power which is responsible for the functioning of life on earth. It is essential for mankind to flourish so it is our duty to conserve it for our future generations. We must stop the selfish activities and try our best to preserve the natural resources so life can forever be nourished on earth

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Cryptocurrency Does it affect the environment? Consider security arrangements? Learn

The demand for cryptocurrencies is growing rapidly, but so have the concerns about its regulation and environmental impact. Cryptocurrencies are mined, for which a lot of energy is used and it leaves a carbon footprint in the environment.

Cryptocurrency Mining : Cryptocurrency mining has an impact on the environment.

The demand for cryptocurrencies is increasing rapidly around the world, But there are many concerns about its widespread adoption as a mode of financial transactions. Huh. Questions are raised about the regulation of cryptocurrencies. It also affects the environment. Bitcoin is the most popular among cryptocurrencies,But in the past, when Tesla’s founder Elon Musk backed another cryptocurrency Dogecoin, raising concerns about its environmental impacts, bitcoin saw a significant drop.

How does cryptocurrencies harm the environment?Talking about its environmental damage, Elon Musk said that the energy usage trend (in the last few months) is very high. Musk meant about the energy spent on mining bitcoins.

High powered computers are used in the mining of cryptocurrencies and this process takes a lot of energy. In most cases, the process relies on fossil fuels, especially coal.Analysts at Deutsche Bank estimate that bitcoin uses almost as much electricity in a year as a country like Ukraine does. Cryptocurrency Ethereum in a year, according to Digiconomist According to the cryptocurrency Ethereum uses the same amount of energy in a year as a country like Switzerland.

You can also donate in Cryptocurrency, you get many benefits, know where you can donate

The electrical waste and carbon footprint generated from these cryptocurrencies also do not paint a good picture. According to another report by Digiconomist, Luxembourg generates as much e-waste in a year as bitcoin e-wastes. Compared to the carbon footprint, it is at par with Greece. Ethereum’s footprint equals Myanmar’s annual value

Mining geography changed in the last six months
However, new data from the University of Cambridge has shown that the geography of mining has changed significantly in the last six months. One of the reasons is China’s crackdown on cryptocurrencies. More than half of the world’s bitcoin miners went offline in a matter of days due to this action. Mike Collier, CEO of digital currency company Foundry, told CNBC that, ‘This will force miners to look for alternatives that are renewable.’ That is, those that can be renewed.

Cryptocurrency: How much fear of hacking, theft or fraud is there in cryptocurrencies? Learn how to stay safe

Many energy efficient options available
Talking about alternatives, there are many cryptocurrencies in the market which are not as popular as bitcoin, dodgecoin and ethereum but are energy efficient. According to a report by inquirer.net, Nano is one such cryptocurrency which is said to have a very low energy footprint. This is because it is not mined like bitcoin. This is the reason that its carbon footprint is also low, which reduces the transaction fee.

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ब्रह्मांड की अज्ञात ताकत से क्या पर्दा उठेगा

रोशनी से उसका कोई नाता नहीं, उसे देख नहीं सकते, लेकिन वह हैचंद्रभूषण

फिजिक्स या नैचुरल फिलॉस्फी को लेकर कोई भी बुनियादी मिजाज की चर्चा अभी डार्क मैटर और डार्क एनर्जी पर आकर अटक जाती है। हाल में एक फंडामेंटल पार्टिकल म्यूऑन पर लिए गए दो असाधारण प्रेक्षणों को लेकर पूरी दुनिया में जबरदस्त सनसनी देखी गई। कई भौतिकशास्त्री इस बात को लेकर ही तरंगित दिखे कि इससे पार्टिकल फिजिक्स के स्टैंडर्ड मॉडल को लेकर अरसे से बनी संतुष्टि समाप्त होगी और वैज्ञानिक अपनी पूरी ताकत डार्क मैटर और डार्क एनर्जी जैसे बड़े रहस्यों को समझने में लगा सकेंगे। जाहिर है, सृष्टि के मूलभूत कारोबार में दिलचस्पी रखने वाले एक आम इंसान के लिए यह जानना ज़रूरी हो गया है कि ये दोनों चीज़ें आखिर हैं क्या, और विज्ञान के लिए इन्होंने अचानक इतना केंद्रीय महत्व कैसे ग्रहण कर लिया है।

पहली मुश्किल तो द्रव्य और ऊर्जा के इन रूपों के साथ डार्क जैसा साझा शब्द जुड़ा होने से पैदा होती है। डार्क सीक्रेट और डार्क मैजिक जैसी जगहों पर इसका इस्तेमाल गर्हित या त्याज्य जैसे खराब अर्थ में होता रहा है। लेकिन यहां डार्क का मतलब सिर्फ इतना है कि वैज्ञानिक इनके होने को लेकर तो आश्वस्त हैं, लेकिन इसके अलावा इनका कुछ भी सिर-पैर फिलहाल उनकी समझ से बाहर है। दूसरे शब्दों में कहें तो डार्क शब्द यहां ‘अज्ञात’ के अर्थ में आया है। उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के संधिकाल के जीनियस फ्रांसीसी गणितज्ञ हेनरी प्वांकारे के जमाने में भी खगोलशास्त्रियों को डार्क मैटर का कुछ-कुछ अंदेशा होना शुरू हो गया था, लेकिन प्वांकारे ने इसके लिए डार्क के बजाय ‘ऑब्स्क्योर’ (अस्पष्ट या अव्यक्त) विशेषण का इस्तेमाल किया था।

सबसे पहले 1933 में एक गैलेक्सी क्लस्टर (नीहारिका समूह) के अध्ययन के दौरान यह बात उभरकर आई थी कि अंतरिक्ष में दर्ज की जाने वाली आकाशगंगा जितनी या उससे बड़ी चीज़ों का कुल वजन उनमें मौजूद तारों, ग्रहों, उपग्रहों और धूल वगैरह के सम्मिलित वजन जितना होने के बजाय उसका कई गुना होता है। कभी-कभी तो सौ गुने से भी ज़्यादा।

इन विशाल आकाशीय संरचनाओं में किसी भी उपाय से प्रेक्षित न की जा सकने वाली कोई चीज़ है, जिसमें वजन के अलावा दर्ज करने लायक और कुछ नहीं है, और जिसे समझने के लिए छोटे स्तर पर उसकी कोई बानगी भी मौजूद नहीं है, यह बात 1970 के दशक तक पक्की हो गई थी। फिर हमारी अपनी आकाशगंगा के अध्ययन से पता चला कि इसके बाहरी तारों की रफ्तार काफी तेज़ है। सौरमंडल की तरह शनि, यूरेनस और नेपच्यून जैसे बाहरी ग्रहों के अपनी कक्षा में तुलनात्मक रूप से धीमा, और धीमा होते जाने जैसा कोई मामला वहां नहीं है। यह तभी संभव था, जब इसमें बाहर कोई अनदेखा वजन मौजूद हो।

इस तरह डार्क मैटर ने अनुमान से हटकर एक ठोस चीज़ की शक्ल अख्तियार कर ली। फिर जल्द ही यह हिसाब भी लगा लिया गया कि यह अनजाना द्रव्य पूरे ब्रह्मांड में वजन के हिसाब से सामान्य द्रव्य का- जिसमें तारों, ग्रहों-उपग्रहों, ब्लैक होल और धूल-धक्कड़ से लेकर हम-आप भी शामिल हैं- लगभग छह गुना है। अभी तो नीहारिकाओं के गुरुत्वीय प्रेक्षणों में ऐसी जगहों पर भी भारी-भरकम गुरुत्व दर्ज किया जा रहा है, जहां तारे या तो नदारद हैं या उनकी संख्या बहुत कम है। इससे डार्क मैटर को गणना की चूक या किसी अवधारणात्मक गड़बड़ी का नतीजा मानने वाली सोच लगभग अप्रासंगिक हो गई है।

डार्क एनर्जी अलबत्ता बहुत हाल की चीज़ है और एक मामले में यह डार्क मैटर से भी कम ‘डार्क’ है। डार्क मैटर के साथ किसी भी उपाय से नज़र न आने वाली बात ज़रूर जुड़ी है, लेकिन डार्क एनर्जी का क़िस्सा 1998 में इसके नज़र आ जाने के साथ ही शुरू हुआ। ब्रह्मांड फैल रहा है, यह जानकारी 1930 के दशक में हो गई थी, जब आइंस्टाइन का जलवा अपने चरम पर था। यह और बात है कि ख़ुद आइंस्टाइन ब्रह्मांड के स्टेडी स्टेट (स्थिर अवस्था) मॉडल के पक्षधर थे और अपनी पूरी दिमाग़ी क्षमता उन्होंने इसके फैलाव से जुड़े प्रेक्षणों को बैलेंस करने में लगा दी थी। बहरहाल, ब्रह्मांड के फैलने की गति को लेकर लगातार काम चलता रहा और इस कोशिश में जुटे दो अमेरिकी और एक ऑस्ट्रेलियाई वैज्ञानिक एडम रीस, सॉल पर्लमटर और ब्रायन श्मिट 1998 में अपने इस प्रेक्षण से चकित रह गए कि जो गैलेक्सी धरती से जितनी दूर है, उसके दूर भागने की रफ्तार उतनी ही ज़्यादा बढ़ी हुई है। बाद में इसके लिए उन्हें नोबेल प्राइज भी मिला।

इस प्रेक्षण की व्याख्या करना तब तक के ब्रह्मांडीय मॉडल के बूते की बात नहीं थी। उस समय तक ऐसा माना जाता था कि ब्रह्मांड अपने प्रारंभ बिंदु बिग बैंग (महाविस्फोट) के झटके से ही फैल रहा है। जांचने की बात इतनी ही है कि आगे यह लगातार फैलता जाएगा, या एक बिंदु के बाद ठहर जाएगा, या फिर फैलाव पूरा होते ही सिकुड़ने लगेगा और सिकुड़ता हुआ वापस अपने प्रारंभ बिंदु में लौट आएगा (बिग क्रंच थीसिस)। ये सारे अनुमान ब्रह्मांड के त्वरित फैलाव की बात साबित होने के साथ ही बेमानी हो गए। ध्यान रहे, यह सिर्फ 22-23 साल पहले की बात है। त्वरित फैलाव के लिए किसी अतिरिक्त बल या ऊर्जा की ज़रूरत होती है। यह भला कहां से आ रही है? इसका स्वरूप क्या है? यह शुरू से किसी और रूप में मौजूद थी या अचानक पैदा हो गई? अगर बीच में पैदा हुई तो कब? और सबसे बड़ा सवाल यह कि इस ऊर्जा का गणित क्या होगा?

इनमें से कुछ सवालों के जवाब आसानी से खोज लिए गए। ब्रह्मांड का फैलाव नापने के लिए इन वैज्ञानिकों ने इसके सबसे प्रामाणिक उपाय 1-ए सुपरनोवा का सहारा लिया था, जिसे मानक मोमबत्ती (स्टैंडर्ड कैंडल) का दर्जा हासिल है। 1-ए सुपरनोवा वाइट ड्वार्फ तारों के किसी और तारे से जुड़ने पर होने वाले विस्फोट को कहते हैं। इसका सीधा सा फॉर्म्युला है। 30 लाख टन प्रति घनमीटर से ज़्यादा घनत्व वाला द्रव्य जब 50 करोड़ डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा तापमान पर पहुंचता है तो उसमें कार्बन फ्यूजन होता है और इस विस्फोट में वह एक ख़ास रोशनी के साथ धधकता है। वाइट ड्वार्फ तारे किसी और तारे के विस्फोट के बाद बची हुई उसकी धुरी हुआ करते हैं और बहुत लंबा जीते हैं। एक मीटर लंबाई, चौड़ाई और ऊंचाई वाले बक्से में 20 लाख जवान भारतीय हाथियों जितना या इससे भी ज़्यादा वजन पूरे ब्रह्मांड में वाइट ड्वार्फ नाम की इस अजूबा जगह पर ही पाया जाता है। और 50 करोड़ डिग्री तापमान के बारे में तो सोचना भी सिरदर्द को न्यौता देने जैसा है।

ऐसे तारों का 1-ए सुपरनोवा की गति को प्राप्त होना वैज्ञानिकों को अरबों प्रकाश वर्ष दूर तक झांक लेने का मौका देता है। जैसे अंधियारी रात में जुगनुओं को देखकर हम यह जान लेते हैं कि वे कितनी दूर चमक रहे हैं, वैसी ही भूमिका अपनी सुपरिभाषित रोशनी के चलते अंतरिक्ष में 1-ए सुपरनोवा निभाती है। इन मानक मोमबत्तियों के प्रेक्षण के आधार पर वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अब से कोई छह अरब साल पहले तक (मोटे तौर पर सूरज की पैदाइश के थोड़ा पहले) ब्रह्मांड में डार्क एनर्जी का कोई प्रभाव नहीं था। बिग बैंग को तब तक सात-आठ अरब साल बीत चुके थे और ब्रह्मांड के फैलाव की गति स्थिर होने के क्रम में मंद पड़ने की तरफ बढ़ रही थी। फिर अचानक यह बहुत तेज़ी से फैलना शुरू हो गया और इसके फैलने की रफ्तार दिनोंदिन तेज़ से तेज़तर होती चली गई।

वैज्ञानिक अभी तक सृष्टि के प्रारंभ बिंदु से लेकर वर्तमान तक और संभवतः भविष्य में भी विज्ञान के नियमों को एक समान मानते आए हैं। अभी उनके सामने चुनौती न सिर्फ ब्रह्मांड रचना के नियम खोजने की है, बल्कि उन्हीं नियमों में कोई ऐसी गुंजाइश भी ढूंढ निकालने की है, जो बीच रास्ते में ही डार्क एनर्जी जैसे आश्चर्य को जन्म दे सके।

डार्क मैटर पर वापस लौटें तो मामला सिर्फ उसके नज़र न आने का नहीं है। बहुत सारी चीज़ें हमारी प्रेक्षण की सीमाओं के चलते नज़र नहीं आतीं। सूरज के अलावा बाकी तारों के भी ग्रह होते हैं या नहीं, तीस साल पहले तक यह हम नहीं जानते थे। क्योंकि तारों की तरह ग्रह प्रकाश नहीं छोड़ते। वे सिर्फ थोड़ा सा प्रकाश परावर्तित करते हैं जो उनके तारे की चमक में खो जाता है। ब्लैक होल को सिद्धांततः नहीं देखा जा सकता क्योंकि वह न तो प्रकाश छोड़ता है, न ही परावर्तित करता है। प्रकाश किरणों को अपनी तरफ झुकाने की प्रवृत्ति के चलते ग्रैविटेशनल लेंसिंग उनकी शिनाख्त का जरिया बनती है और इर्दगिर्द घूमने वाली तपती गैसों से उनकी छाया की तस्वीर भी उतारी जा सकती है।

लेकिन डार्क मैटर का तो प्रकाश के साथ कोई लेना-देना ही नहीं है। वह न तो इसे छोड़ता है, न परावर्तित करता है, न इसकी दिशा मोड़ता है, न ही इसे सोखता है। ऐसे में उसके बारे में अटकलबाजी के अलावा इतना ही किया जा सकता है कि ग्रैविटेशनल मैपिंग से उसके ढूहों का नक्शा बना लिया जाए। बहरहाल, इससे डार्क मैटर का महत्व रत्ती भर भी कम नहीं होता। ब्रह्मांड के नक्शे में गैलेक्सियों के झुंड बेतरतीबी से नहीं बिखरे हुए हैं। समय के आरपार फैले मकड़ी के थ्री-डाइमेंशनल जाले जैसी उसकी स्पष्ट संरचना यहां दिखाई पड़ती है। डार्क मैटर की भूमिका इस ब्रह्मांडीय संरचना की नींव जैसी है।

बिग बैंग के ठीक बाद जब ब्रह्मांड में सिर्फ ऊर्जा रही होगी और पदार्थ अपनी बिल्कुल शुरुआती अवस्था में रहा होगा, तब उसका किसी ढांचे में बंधना शायद ही संभव होता, क्योंकि हर तरफ ऊर्जा की भरमार उसे सेटल ही नहीं होने देती। डार्क मैटर का ग्रैविटी के अलावा और किसी भी मूलभूत बल से कोई लेना-देना अबतक नहीं पाया गया है। लिहाजा सृष्टि की सुबह में संभवतः उसी ने वह ढांचा मुहैया कराया होगा, जिस पर धीरे-धीरे ब्रह्मांड की पूरी इमारत खड़ी हुई। ऐसे में विज्ञान के लिए यह सवाल अभी अपने आप सबसे बड़ा हो जाता है कि इस डार्क मैटर की बनावट क्या है। इसके लिए अगर कण भौतिकी के स्टैंडर्ड मॉडल में कुछ गुंजाइश बनती है तो शायद डार्क एनर्जी पर भी कुछ रोशनी पड़े।

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धरती से 3 गुना ज्यादा वजनी Super Earth मिला, 2.4 दिन में लगाता है एक चक्कर

वैज्ञानिकों ने धरती जैसा लेकिन उससे तीन गुना ज्यादा वजनी सुपर अर्थ (Super Earth) खोजा है. यह धरती से 36 प्रकाशवर्ष दूर है. यह अपने तारे (Red Dwarf Star) के चारों तरफ चक्कर लगा रहा है. यह अपने तारे के चारों तरफ एक चक्कर 2.4 दिन में लगाता है. यानी धरती का एक दिन उस सुपर अर्थ के दिन की तुलना में आधे से भी कम है.

इंस्टीट्यूट डे एस्ट्रोफिजिका डे कैरेनियास (IAC) के पोस्ट डॉक्टोरल रिसर्चर बोर्जा तोलेडो पैड्रन ने बताया कि इस सुपर अर्थ का नाम है GJ740. लेकिन यह बेहद गर्म है. इसका तापमान हमारे सूरज के तापमान से करीब 2000 डिग्री कम है. बोर्जा ने बताया कि इसे आप बड़े टेलिस्कोप से देख भी सकते हैं. बोर्जा की यह खोज एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिजिक्स नाम के जर्नल में प्रकाशित भी हुई है.

बोर्जा का कहना है कि पहली बार कोई ऐसा सुपर अर्थ मिला है जो सबसे कम समय में अपने सूरज का एक चक्कर लगाता है. इसके अलावा एक और ग्रह कुछ दिन पहले खोजा गया था, जो अपने सूरज का एक चक्कर 9 साल में लगाता है. यह सबसे लंबा समय है किसी ग्रह द्वारा अपने तारे का एक पूरा चक्कर लगाने का. इस ग्रह का वजन धरती के वजन से 100 गुना ज्यादा है.

द केपलर मिशन (The Kepler Mission) ने अब तक 156 नए ग्रह खोजे हैं. इनमें से ज्यादातर ठंडे तारे के चारों तरफ चक्कर लगा रहे हैं. यानी इनका सूरज ठंडा हो गया है. GJ740 सुपर अर्थ को खोजने के लिए रेडियल वेलोसिटी टेक्नोलॉजी का उपयोग किया गया है. इस टेक्नोलॉजी में गुरुत्वाकर्षण शक्ति की जांच स्पेक्ट्रोस्कोपिक तरीके से किया जाता है. इससे ग्रह का आकार और वजन पता चलता है.

1998 में रेडियल वेलोसिटी टेक्नोलॉजी का सबसे पहले उपयोग हुआ था. इस टेक्नोलॉजी के जरिए अब तक 116 एक्सोप्लैनेट खोजे जा चुके हैं. चुंकि यह टेक्नोलॉजी अत्यधिक जटिल है, इसलिए इससे किसी भी ग्रह को खोजने के लिए वैज्ञानिक कतराते हैं. लेकिन यह इतनी सटीक है कि इसके जरिए आप जिस भी ग्रह का वजन निकाल सकते हैं. दिक्कत सिर्फ मैपिंग में आती है क्योंकि हर ग्रह का मैग्नेटिक फील्ड होता है, जो इस तकनीक में बाधा उत्पन्न करता है

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Asteroid Warning: धरती से टकराया ऐस्‍टरॉइड तो आएगी तबाही, आपातकालीन प्‍लान बनाने के लिए जुटेंगे विशेषज्ञ

Asteroid News: दुनियाभर के वैज्ञानिक इस महीने की आख‍िर में व‍ियना में बैठक करने जा रहे हैं। इस बैठक में धरती पर ऐस्‍टरॉइड के टकराने के खतरे के बारे में चर्चा होगी। वैज्ञानिकों का अनुमान है क‍ि अगर ऐस्‍टरॉइड धरती से टकराता है तो शरणार्थी संकट पैदा हो जाएगा।

लंदन
धरती से ऐस्‍टरॉइड के टकराने की आशंकाओं के बीच विशेषज्ञों ने आगाह किया है कि अगर ऐसा संकट कभी आता है तो इससे न केवल तबाही आएगी बल्कि दुनिया में मानवाधिकारों का गंभीर संकट पैदा हो जाएगा। उन्‍होंने कहा कि अगर ऐस्‍टरॉइड के टकराने का खतरा मंडराता है तो इससे विश्‍वभर में शरणार्थियों का बड़ा संकट शुरू हो जाएगा और लोग यूरोप तथा अमेरिका को छोड़कर एशिया, पश्चिम एशिया और प्रशांत महासागर की ओर जा सकते हैं।

इसी खतरे को देखते हुए अंतरिक्ष विशेषज्ञ इस महीने एक साथ आ रहे हैं ताकि ऐस्‍टरॉइड के धरती से टकराने की सूरत में एक आपातकालीन प्‍लान बनाया जा सके। विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि हमें न केवल ऐस्‍टरॉइड के टकराने के शुरुआती असर से निपटने की तैयारी करनी होगी बल्कि उसके बाद पैदा होने वाले मानवाधिकारों के संकट से निपटने के लिए तैयार रहना होगा।

पूरी दुनिया में शरणार्थी संकट पैदा हो जाएगा
वियना में आगामी 26 अप्रैल से 30 अप्रैल के बीच में प्‍लेनेटरी डिफेंस कॉन्‍फ्रेंस होने जा रहा है। इस बैठक में अंतरिक्ष मामलों के विशेषज्ञ यह चर्चा करेंगे कि अगर कोई ऐस्‍टरॉइड जैसी चीज धरती के पास वास्‍तविक रूप से आती है तो उसे लेकर क्‍या करना चाहिए। वैज्ञानिकों एक कल्‍पना के ऐस्‍टरॉइड की मदद से अपनी तैयारियों को परखेंगे। साथ ही उससे बचाव के तरीकों पर काम करेंगे।

इस दौरान वैज्ञानिक यह जानने की कोशिश करेंगे कि यह ऐस्‍टरॉइड धरती के किस हिस्‍से से टकराएगा। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि किसी छोटे ऐस्‍टरॉइड के टकराने से कुछ किलोमीटर तक और अगर कोई बड़ा ऐस्‍टरॉइड टकराता है तो उसका असर कई सौ किलोमीटर तक हो सकता है। उनका कहना है कि अगर हम पहले से तैयारी नहीं करते हैं तो इस विस्‍फोट में लाखों लोगों की जान जा सकती है। तटीय इलाकों में बाढ़ आ सकती है। इससे पूरी दुनिया में शरणार्थी संकट पैदा हो जाएगा। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि अमेरिका और यूरोप में ऐस्‍टरॉइड टकरा सकते हैं जिससे एशिया में शरणार्थी संकट पैदा हो सकता है।

धरती को कितना नुकसान?
वायुमंडल में दाखिल होने के साथ ही आसमानी चट्टानें टूटकर जल जाती हैं और कभी-कभी उल्कापिंड की शक्ल में धरती से दिखाई देती हैं। ज्यादा बड़ा आकार होने पर यह धरती को नुकसान पहुंचा सकते हैं लेकिन छोटे टुकड़ों से ज्यादा खतरा नहीं होता। वहीं, आमतौर पर ये सागरों में गिरते हैं क्योंकि धरती का ज्यादातर हिस्से पर पानी ही मौजूद है।

अगर किसी तेज रफ्तार स्पेस ऑब्जेक्ट के धरती से 46.5 लाख मील से करीब आने की संभावना होती है तो उसे स्पेस ऑर्गनाइजेशन्स खतरनाक मानते हैं। NASA का Sentry सिस्टम ऐसे खतरों पर पहले से ही नजर रखता है। इसमें आने वाले 100 सालों के लिए फिलहाल 22 ऐसे ऐस्टरॉइड्स हैं जिनके पृथ्वी से टकराने की थोड़ी सी भी संभावना है।

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Asteroid से धरती को बचाने में जुटे वैज्ञानिक, Atom Bomb से किया जा सकता है हमला

Asteroid: अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा के अनुसार, 22 ऐसे एस्टेरॉयड हैं जिनके अगले 100 साल में धरती से टकराने की संभावना है. अगर कोई ऑब्जेक्ट 46.5 लाख मील प्रति घंटा यानी 74 लाख किलोमीटर प्रति घंटा की स्पीड से धरती की तरफ आता है तो एजेंसी उसे खतरा मानती है.

वॉशिंगटन: एस्टेरॉयड (Asteroid) के धरती से टकराने के खतरे को देखते हुए अमेरिकी वैज्ञानिकों ने इससे निपटने की तैयारी शुरू कर दी है. अमेरिकी वैज्ञानिक (American Scientists) इन एस्टेरॉयड को धरती की कक्षा (Earth’s Orbit) से दूर भेजने के एक वैकल्पिक रास्ते की खोज में जुटे हुए हैं. वैज्ञानिकों ने सलाह दी है कि एस्टेरॉयड के खतरे को देखते हुए परमाणु हथियारों (Nuclear Weapons) का इस्तेमाल किया जाना चाहिए. यह गैर-परमाणु (Non-Nuclear Weapons) हथियारों से बेहतर हैं.


परमाणु हथियारों का इस्तेमाल क्यों?

बता दें कि अमेरिका (US) के लारेंस लिवरमूर नेशनल लैब (Lawrence Livermoor National Lab) के वैज्ञानिक (Scientists) अमेरिकी एयर फोर्स (US Air Force) के टेक्निकल एक्सपर्ट्स की टीम के साथ काम कर रहे हैं. इस टीम में शामिल वैज्ञानिक लांसिंग होरान ने कहा कि परमाणु बम विस्‍फोट (Nuclear Explosion) के बाद होने वाले न्‍यूट्रॉन रेडिएशन (Neutron radiation) से एस्टेरॉयड से छुटकारा पाया जा सकता है. उन्‍होंने कहा कि एक्‍स-रे (X-Rays) की तुलना में न्‍यूट्रॉन (Neutron) ज्‍यादा कारगर साबित हो सकते हैं.

इस वजह से कारगर है न्यूट्रॉन रेडिएशन

होरान के मुताबिक, एस्टेरॉयड की सतह को न्‍यूट्रॉन ज्यादा गरम कर सकते हैं. न्‍यूट्रॉन एक्‍स-रे की तुलना में धरती की कक्षा से एस्टेरॉयड को हटाने में ज्‍यादा प्रभावी होंगे. जान लें कि एस्टेरॉयड को हटाने के 2 तरीकों पर विचार चल रहा है. पहला तरीका है एनर्जी के जोरदार हमले से एस्टेरॉयड को छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़ दिया जाए और दूसरा तरीका है कि एस्टेरॉयड के रास्‍ते को एनर्जी की मदद से बदल दिया जाए.




अमेरिकी वैज्ञानिक होरान ने कहा कि परमाणु हथियार वाले विकल्प का इस्तेमाल तब किया जाएगा जब बहुत कम समय बचेगा. अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा के अनुसार, 22 ऐसे एस्टेरॉयड हैं जिनके अगले 100 साल में धरती से टकराने की संभावना है.

बता दें कि अगर कोई ऑब्जेक्ट 46.5 लाख मील प्रति घंटा यानी 74 लाख किलोमीटर प्रति घंटा की स्पीड से धरती की तरफ आता है तो एजेंसी उसे खतरा मानती है. नासा सेंट्री (Sentry) सिस्टम के जरिए ऐसे खतरों नजर रखता है.

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Explained: क्या NASA का अगला टेलीस्कोप धरती पर तबाही ला सकता है?

नासा (NASA) की योजना जल्द ही जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप (James Webb Space Telescope) लॉन्च करने की है. ये बेमिसाल टेलीस्कोप एलियंस से सीधा संपर्क (contact with aliens) कर सकता है. इसे लेकर ही वैज्ञानिक डरे हुए हैं.

नासा के साथ JWST को बनाने में यूरोपियन स्पेस एजेंसी और कनाडियन स्पेस एजेंसी का भी हाथ रहा
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अंतरिक्ष एजेंसी नासा साल 2022 तक एक बेहद खास टेलीस्कोप लॉन्च करने की योजना में है. जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप (JWST) नाम के इस प्रोजेक्ट के बारे में कहा जा रहा है कि ये खासतौर पर स्पेस में दूसरी दुनिया यानी एलियंस की पड़ताल करेगा. बहुत मुमकिन है कि इस अत्याधुनिक टेलीस्कोप से साथ हम एलियंस से संपर्क कर सकें. हालांकि विशेषज्ञ इसे धरती के लिए खतरनाक मान रहे हैं. उनका कहना है कि एलियंस से संपर्क हो पाने का अर्थ उन्हें अपनी तबाही के लिए बुलाना है.

हो रही है नए टेलीस्कोप की बात

कोरोना के दौर में भी अंतरिक्ष की दुनिया चुपचाप नहीं बैठी, बल्कि लगातार प्रयोग हो रहे हैं. इसी कड़ी में जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप लाया जा सकता है. इसके बारे में माना जा रहा है कि ये अंतरिक्ष की दुनिया का बेमिसाल टेलीस्कोप होगा, जिसके सामने मौजूदा उपकरण कुछ भी नहीं होंगे. ये स्पेस में हमारी पहुंच को लाखों किलोमीटरों तक ले जाएगा. तो सबसे पहले तो समझते हैं कि आखिर किन खूबियों से ये टेलीस्कोप लैस होगा.

टेलीस्कोप को -400 डिग्री फैरनहाइट तापमान पर रखना होगा (Photo- snappygoat)

क्या कहते हैं विशेषज्ञ
नासा के साथ JWST को बनाने में यूरोपियन स्पेस एजेंसी और कनाडियन स्पेस एजेंसी का भी हाथ रहा है. इस इंफ्रारेड टेलीस्कोप का वजन 6 मैट्रिक टन होगा और इसकी धुरी धरती से 1.5 मिलियन किलोमीटर रहेगी. नॉर्थाप ग्रुमन एरोस्पेस सिस्टम्स (Northrop Grumman Aerospace Systems) के एस्ट्रोफिजिसिस्ट ब्लैक बुलक ने इस बारे में काफी पड़ताल की. वे इस प्रोजेक्ट का हिस्सा भी रह चुकी हैं. ट्रीहगर वेबसाइट ने उनके हवाले से इस टेलीस्कोप के बारे में कई जानकारियां दीं.

सूरज की रोशनी से बचाने के लिए टेनिस कोर्ट जैसी शील्ड
वे बताती हैं कि स्पेस में ये सबसे अनोखा टेलीस्कोप है, जिसे ठंडा रखने के लिए भी आधुनिकतम तरीके अपनाए गए. दरअसल लंबे समय तक गर्मी लगने पर टेलीस्कोप अपनी क्षमता खो सकता है, जिससे बचाने के लिए उसके चारों ओर सन शील्ड तैयार की गई. ये एक टेनिस कोर्ट जितनी लंबी-चौड़ी है, जो उसके लिए छाते की तरह काम करेगी. बता दें कि टेलीस्कोप को -400 डिग्री फैरनहाइट तापमान पर रखना होगा ताकि वो प्रभावी तरीके से काम कर सके.
मौजूदा टेलीस्कोप्स से सैकड़ों गुना शक्तिशाली
जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप इस समय सबसे ताकतवर टेलीस्कोप्स से भी 100 गुना ज्यादा शक्तिशाली माना जा रहा है. जैसे नासा के हबल टेलीस्कोप (Hubble Space Telescope) से ही तुलना करें तो हबल जहां धरती के ऑर्बिट के एकदम पास है, वहीं JWST धरती से 1.5 मिलियन किलोमीटर की दूरी पर होगा. इससे फायदा ये है कि ये लाखों -करोड़ों किलोमीटर दूर तक अंतरिक्ष में देख सकेगा.

जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप काफी ताकतवर माना जा रहा है-

क्या काम करेगा ये
हबल टेलीस्कोप अपनी अधिकतम क्षमता के साथ भी उतनी पुरानी गैलेक्सीज को नहीं देख पाता था, वहीं नए टेलीस्कोप के बारे में उम्मीद है कि वो पुरानी से पुरानी और नई से नई गैलेक्सी की जानकारी हम तक पहुंचा सकेगा. साथ ही ये भी देखा जा सकेगा कि दूसरे तारों में क्या-क्या फीचर हैं, जैसे क्या वहां पानी है, कैसा वातावरण है और किस तरह के केमिकल तत्व वहां हैं. इससे हम ज्यादा से ज्यादा एस्टेरॉइड्स को बेहतर तरीके से जान सकेंगे, जिससे सोलर सिस्टम को समझने में मदद मिलगी.

क्या एलियंस का भी पता लग सकेगा?
JWST के बारे में सबसे बड़ी खूबी जो बताई जा रही है, वो है धरती के आसपास या दूर-दराज में एलियंस की उपस्थिति का पता लगाना. इस बारे में बुलक का मानना है कि इस टेलीस्कोप की यही सबसे बड़ूी खूबी हो सकती है. हालांकि फिलहाल इस बारे में पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि टेलीस्कोप इसमें किस हद तक सफल होगा लेकिन जितने आधुनिक फीचर इसमें डाले गए, उससे ये अनुमान लगाया जा रहा है.

वैज्ञानिकों को डर है कि यह एलियंस को भी हमारी जानकारी दे सकता है- सांकेतिक तस्वीर (flickr)

वैसे तो ये प्रोजेक्ट इसी साल मार्च में लॉन्च होने जा रहा था लेकिन अब ये टल गया है. हो सकता है कि अगले साल की शुरुआत या फिर इसी साल के अंत में इसकी लॉन्चिंग हो जाए. हालांकि इस बीच कई एस्ट्रोफिजिसिस्ट इसे लेकर चेतावनी भी दे रहे हैं.
क्या डर है जानकारों को
इस शक्तिशाली टेलिस्कोप से कुछ वैज्ञानिकों को डर है कि यह एलियंस को भी हमारी जानकारी दे सकता है, ठीक वैसे ही जैसे हम उनकी जानकारी लेने की कोशिश में हैं. फिलहाल तक ऐसा कोई पक्का प्रमाण नहीं मिला है कि एलियंस अगर हैं तो उन्होंने धरती पर आने की कोशिश की है. लेकिन एक बार जानकारी मिलने के बाद वे भी हमारी धरती पर संपर्क करेंगे. ऐसे में अगर वे ताकतवर हों तो इस आशंका से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि वे धरती पर कब्जा करने की सोचेंगे.

धरती पर कब्जे की आशंका जताई जा रही
अमेरिका के थ्योरेटिकल फिजिसिस्ट और लेखक मिचिओ काकू (Michio Kaku) ने ऑब्जर्वर के साथ बातचीत में कहा कि नया टेलिस्कोप लोगों को हजारों ग्रहों को देखने की ताकत तो देगा, लेकिन हमें उनके निवासियों तक पहुंचने के बारे में काफी सावधानी से सोचना चाहिए. जैसे ही टेलीस्कोप धरती की ऑर्बिट में पहुंचेगा, हम हजारों ग्रहों को देख सकेंगे और वे भी हमें देख पाएंगे. ऐसे में इस बात की संभावना है कि हम किसी दूसरे ग्रह की सभ्यता के साथ संपर्क में आ जाएं. ये खतरनाक हो सकता है.

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ISRO Offers Free Online Course on Geographical Information System That Can Be Completed in Four Days

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ISRO has Invited applications from students and professionals for a free online course on Geographical Information System for Supply Chain Management. The course is being offered as part of the Indian Space Research Organisation’s outreach program through its centre the Indian Institute of Remote Sensing (IIRS). The course, which will be conducted online due to the pandemic, can be completed in four days.

The course is being organised by the Geoinformatics Department of IIRS, and the content will be delivered by experts in their respective fields. ISRO says that it also plans to offer niche internships to graduates from top B-schools in these areas. The institute is also fully capable of offering short-term in-house training on the respective subjects. The course will be conducted from 26 to 30 April 2021.

What the ISRO Free Online Course on GIS for Supply Chain Management Will Cover
Geographical Information System (GIS) is basically a technology that is capable of capturing, storing, manipulating, visualising and analysing location-based data. Some of the advanced technology that GIS includes are satellite-based imaging, location-based services, spatial sciences and information technology. The technology has a wide range of applications and has already found its way into the mobile phones of consumers as well as e-commerce deliverables.

In the same context, a GIS-based Supply Chain Management (SCM), which is being widely adopted by industries these days, can greatly enhance the effectiveness and profitability of a supply chain. This course aims at giving an introduction on such technologies to participants. The course content will be market-driven and will provide an understanding of how these technologies are being adopted by raw material suppliers, processing units, and distribution centers among others.



Who can Take the ISRO Free Online Course?
This course has been designed for the benefit of the following participants:

Students studying business management, logistics and other related fields.
Management professionals are who interested in GIS or location-based decision making.
Start-ups and innovation centers.
How to Apply for ISRO Online Course?
Firstly, participants need to know to apply for the course a designated coordinator from the institute of participants will have to first get their organisation registered as the nodal centre with IIRS in order to help participants take the course. All the participants will then have to register online through the registration page on the website by selecting their organisation as the nodal center.



How to Get ISRO Certificate for the Course?
Participants are usually provided with certificates for attending free online courses, and the same can be obtained by ensuring 70 percent attendance. All certificates will be sent to the coordinator of the nodal centres, and the distribution of certificates will be taken care of by the coordinator.



What is IIRS Outreach Program?
IIRS is a training and educational institute set up by ISRO for developing trained professionals in the field of remote sensing, geoinformatics and GNSS technology for natural resources, environmental and disaster management. The IIRS outreach program, which was started in 2007, aims at giving free training to students, professionals, enterprises and government organisations on the emerging areas of geospatial technology.

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